श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी–२

सुपर्णा एक दिन बाग में थी। मोहन लौटा हुआ घर आ रहा था। सुपर्णा रंग गई। बुलाया। मोहन फिर भी घर की तरफ चला। 'मोहन! ये आम बाबूजी दे गए हैं, ले जाओ। तकवाहा बाजार गया है।' मोहन बाग की ओर चला। नजदीक गया तो सुपर्णा हंसने लगी, 'कैसा धोखा देकर बुलाया है? - आम बाबूजी ने तुम्‍हारे यहां कभी और भिजवाए हैं? मोहन लजाकर हंसने लगा। 'लेकिन तुम्‍हारे लिए कुछ आम चुनकर मैंने रखे हैं। चलो।' मोहन ने एक बार संयत दृष्टि से उसे देखा। सुपर्णा साथ लिए बीच बाग की तरफ चली, 'मैंने तुम्‍हें आते देखा था, तुमसे मिलने को छिपकर चली आई। तकवाहे को सौदा लेने बाजार (दूसरे गांव) भेज दिया है। याद है मोहन ?' 'क्‍या?' 'मेरी गुइंइयों ने तुम्‍हारे साथ, खेल में।' 'वह तो खेल था।' 'नहीं वह सही था। मैं अब भी तुम्‍हें वही समझती हूं।' 'लेकिन तुम पयासी हो। शादी तुम्‍हारे पिता को मंजूर न होगी।' 'तो तुम मुझे कहीं ले चलो। मैं तुमसे कहने आई हूं। दूसरे से ब्‍याह करना मैं नहीं चाहती।' मोहन की सुंदरता गांव की रहने वाली सुपर्णा ने दूसरे युवक में नहीं देखी। उसका आकर्षण उसकी मां को मालूम हो चुका था। उसका मोहन के घर जाना बंद था। आज पूरी शक्ति लड़ाकर, मौका देखकर मोहन से मिलने आई है। मोहन खिंचा। उसे वहां वह प्रेम न दिखा, वह जिसका भक्त था, कहा - 'लेकिन मैं कहां ले चलूं?' 'जहां रहते हो।' 'वहां तो पिताजी हैं।' 'तो और कहीं।' 'खाएंगे क्‍या?' खाना पड़ता है, यह सुपर्णा को याद न था। मोहन से लिपटी जा रही थी। इसी समय तकवाहा बाजार से आ गया था। देखकर सचेत करने के लिए आवाज दी। सुपर्णा घबराई। मोहन खड़ा हो गया। तकवाहा सौदा देकर मोहन को जमींदार की ही दृष्टि से घूरता रहा। मतलब समझकर मोहन धीरे-धीरे बाग से बाहर निकला और घर की ओर चला। तकवाहा धार्मिक था। जैसा देखा था, पं. रामखेलावन जी से व्‍याख्‍या समेत कहा। साथ ही इतना उपदेश भी दिया कि मालिक! पानी की भरी खाल है, कल क्‍या हो जाए! बिटिया रानी का जल्‍द से ब्‍याह कर देना चाहिए। पं. रामखेलावन जी भी धार्मिक थे। धर्म की सूक्ष्‍मतम दृष्टि से देखने लगे तो मालूम पड़ा कि सुपर्णा के गर्भ है, नौ-दस महीने में लड़का होगा। फिर? इस महीने लगन है - ब्‍याह हो जाना चाहिए। जल्‍दी में बनारस चले। पं. गजानन्‍द शास्‍त्री बनारस के बैद्य हैं। वैदकी साधारण चलती है, बड़े दांव-पेंच करते हैं तब। पर आशा बहुत बढ़ी-चढ़ी है। सदा बड़े-बड़े आदमियों की तारीफ करते हैं और ऐस स्‍वर से, जैसे उन्‍हीं में ऐ एक हों। वैदकी चले इस अभिप्राय से शाम को रामायण पढ़ते-पढ़वाते हैं तुलसी कृत; अर्थ स्‍वयं कहते हैं। गोस्‍वामी जी के साहित्‍य का उनसे बड़ा जानकार - विशेषकर रामायण का, भारतवर्ष में नहीं, यह श्रद्धापूर्वक मानते हैं। सुनने वाले ज्‍यादातर विद्यार्थी हैं, जो भरसक गुरु के यहां भोजन करके विद्याध्‍ययन करने काशी आते हैं। कुछ साधारण जन हैं, जिन्‍हें असमय पर मुफ्त दवा की जरूरत पड़ती है। दो-चार ऐसे भी आदमी, जो काम तो साधारण करते हैं, पर असाधारण आदमियों में गप लड़ाने के आदी हैं। मजे की महफिल लगती है। कुछ महीने हुए, शास्‍त्री जी की तीसरी पत्‍नी का असच्चिकित्‍सा के कारण देहांत हो गया है। बड़े आदमी की तलाश में मिलने वाले अपने मित्रों से शास्‍त्री जी बिना पत्‍नी वाली अड़चनों का बयान करते हैं, और उतनी बड़ी गृहस्‍थी आठाबाठा जाती है - इसके लिए विलाप। सुपात्र सरयूपारीण ब्राह्मण हैं; मामखोर सुकुल। पं. रामखेलावन जी बनारस में एक ऐसे मित्र के यहां आकर ठहरे, जो वैद्य जी के पूर्वोक्‍त प्रकार के मित्र हैं। रामखेलावन जी लड़की के ब्‍याह के लिए आए हैं, सुनकर मित्र ने उन्‍हें ऊपर ही लिया, और शास्‍त्री जी की तारीफ करते हुए कहा, 'सुपात्र बनारस शहर में न मिलेगा। शास्‍त्री जी की तीसरी पत्‍नी अभी गुजरी हैं; फिर भी उम्र अभी अधिक नहीं, जवान हैं।' शास्‍त्री, वैद्य, सुपात्र और उम्र भी अधिक नहीं - सुनकर पं. रामखेलावन जी ने मन-ही-मन बाबा विश्‍वनाथ को दंडवत की और बाबा विश्‍वनाथ ने हिंदू-धर्म के लिए क्‍या-क्‍या किया है, इसका उन्‍हें स्‍मरण दिलाया - वे भक्‍तवत्‍सल आशुतोष हैं, यह यहीं से विदित हो रहा है - मर्यादा की रक्षा के लिए अपनी पुरी में पहले से वर लिए बैठे हैं - आने के साथ मिला दिया। अब यह बंधन न उखड़े, इसकी बाबा विश्‍वनाथ को याद दिलाई। पं. रामखेलावन जी के मित्र पं. गजानन्‍द शास्‍त्री के यहां उन्‍हें लेकर चले। जमींदार पर एक धाक जमाने की सोची; कहा, 'लेकिन बड़े आदमी हैं, कुछ लेन-देन वाली पहले से कह दीजिए, आखिर उनकी बराबरी के लिए कहना ही पड़ेगा कि जमींदार हैं।' 'जैसा आप कहें।' 'कुल मिलाकर तीन हजार तो दीजिए, नहीं तो अच्‍छा न लगेगा।' 'इतना तो बहुत है।' 'ढाई हजार? इतने से कम में न होगा। यह दहेज की बात नहीं, बनाव की बात है।' 'अच्‍छा, इतना कर दिया जाएगा। लेकिन विवाह इसी लगन में हो जाना चाहिए।' 'मित्र चौंका। संदेह मिटाने के लिए कहा, 'भई, इस साल तो नहीं हो सकता।'

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